पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी

आस्था के बांड बड़े जटिल होते हैं. बिल्कुल आर्गेनिक केमेस्ट्री के बांडों की तरह. आस्था का कोई भौतिक स्वरूप रसायन विज्ञानियों के हाथ लग जाता तो शायद दुनिया के सबसे जटिल संरचना वाले पदार्थ में आस्था ही होती. सब कुछ ठीक-ठाक रहा होता तो यह कांवड़ यात्रा का वक्त है. इसी के बहाने आस्था याद आ गई. ख़ुद आस्थावान हूं या नहीं, इसे बारे में मन की खंडपीठ के फ़ैसले अलग-अलग हैं. संविधान पीठ गठन जैसा मसला है.

लेकिन इतना तो मान ही चुका हूं कि धर्म और आस्था कम से कम अफ़ीम नहीं है. और अगर हैं भी तो इस अफ़ीम में वो तासीर नहीं रही कि इसे हैव्ज़ और हैव्ज़ नॉट (शोषक और शोषित) की बहस में घुसेडा़ जाए. आस्था विज्ञान भी है और कला भी. मैडम क्यूरी से लेकर कार्ल मार्क्स तक इस पर समान रूप से अध्ययन कर सकते थे.

हमसे पहले की पीढ़ी जो खटारा डग्गामारों में शहर और देहात के बीच जूझ रही थी. उसकी तो ख़ैर आस्था के बारे में जो समझ बननी थी वो बन चुकी थी. कुदाल से खेतों के कोन गोड़ने वाले भी अच्युतम-केशवम्, रामनारायणम् गाते हुए मिल जाते थे. उधर जगजीत सिंह गा रहे होते – अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूं, अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूं.

लेकिन हमारे जैसों की तो आस्था की समझ बननी थी. वो कुछ यूं बनी. कोई चचा पूछते थे – का,जीजा अबकी कस रही सरसों. फूफा का जवाब आता था – अरे, भाय का बताई, अगर किरवा न लागत तो अबकी कोटिन अर्जुन मार गिराइत (मतलब, अगर कीड़ा नहीं लग जाता तो अर्जुन कई सौ मील दूर कौरवों को मार गिराते अर्थात फ़सल ऐसी होती कि खलिहान में रखने की जगह न होती.)

अब आप सोच रहे होंगे कि इसमें आस्था की क्या बात है? बात है. इसके बाद महाभारत पर चर्चा शुरु होती थी और आल्हा शैली में महाभारत के क़िस्से शुरु होते थे और फिर बीए में हिंदी साहित्य की पढ़ाई कर रहे किसी सुयोग्य छात्र के मुंह से कृष्ण महिमा वाया रामधारी सिंह दिनकर शुरु हो जाती थी कि कैसे कृष्ण ने दुर्योधन को उसकी औक़ात दिखाई.

सब जनम मुझी से पाते हैं और फिर लौट मुझी में आते हैं… हां-हां, दुर्योधन बांध मुझे. यक़ीन मानिए आज भारत के गांव भले ही बीडीसी मेंबरी की चर्चा में उलझे हो लेकिन कभी रश्मिरथी कि लोकप्रियता गांवों के पढ़े-लिखों में ख़ूब थी. रीतिकाल-भक्तिकाल की कविता को तो हिंदी के आचार्य उतना ज़िंदा नहीं रख पाए जितना गांवों के प्राइमरी में पढ़ाने वाले मास्टरों ने रखा.

हमारी आस्था इन्हीं सब से बनी-बिगड़ी. विरहणी की पीड़ा का सस्वर पाठ होता था – डग भई बावन की सावन की रतिया (मतलब प्रियतम के न होने से सावन की रतिया प्रियतमा को वामन के डग से भी लंबी लग रही थी. यू नो वामन. वही वामन भगवान जिन्होंने तीन क़दमों में पूरी दुनिया नाप दी और फिर राजा साहेब से कहा लाओ अब अगली लात तुम्हारी पीठ पर रखूंगा).

हमने ईश भक्ति इससे कितनी सीखी, पता नहीं, लेकिन क़िस्सागोई के अथाह आनंद ने ज़रूर आस्था का कोई न कोई बंध बांधा होगा. हमारे मास्टरों ने हमें बहुत कुछ सिखाया, लेकिन हमी थे कि कुछ नहीं सीख पाए. जब वो पढ़ाते थे – या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी, अधरा न धरौंगी या पिय प्यारे तिहारे निहारे बिने अंखिया दुखिया नहीं मानती हैं तो बोर होते हुए भी कुछ न कुछ आस्थावान हो गए.

दरअसल प्रेम और आस्था के बीच ग़ैर-विवादित लाइन ऑफ़ कंट्रोल होती है. ये गांव की चकरोड वाली आस्था थी, जिसे दोनों तरफ़ के खेत जोतने वाले धीरे-धीरे अपने खेत में मिलाते रहते थे और फिर चकरोड़ के नाम पर एक मेड़ भर रह जाती थी.

आस्था की संकरी पगडंडियों से निकल कर नेशनल हाइवे पर डिवाइडरों के कट बंद करा, ट्रैफिक को वन-वे करा शान से चलने वाली कांवड यात्रा की आस्था एनसीआर में देखी. वरना हम जिस ज़िले में रहते थे, वहां एक ज़माने में महादेवा के मेले में महिलाओं का जाना वर्जित था क्योंकिं वहां नारा लगता था – फूल माला, कहां चढ़ेगा…. शंकर जी के …पर.

भगवान और भक्तों में ‘फ्रैंकली स्पीकिंग’ वाला रिश्ता इस हद तक फ़्रैंक था कि शिवलिंग जैसे शास्त्रीय शब्द की जगह वे सामान्य बोलचाल में इस्तेमाल होने वाला शब्द बोलते. अब ये आप पर है कि आप गालियों को सामान्य बोलचाल का हिस्सा मानते हैं या नहीं.

एकाधिक नारे तो ऐसे थे कि लिख दूं तो नारीवादी मेरे कपड़े फाड़ डालेंगे और आधुनिक शुद्धतावादी आस्थावान दो-तीन मुकदमे भी ठोक देंगे. हालांकि उन नारों में पितृसत्तात्मकता की गंध थी, इससे बिल्कुल भी इन्कार नहीं है. वह अपने तरीके की आस्था थी और मसाने में भी होली खेल लेने वाले दिगंबर की भक्ति का अपना तरीका.

कटहउवा बाबा बहुत जगह देखे. शिव के सरलतम रूपों में एक. एक हमारे ननिहाल में भी थे. बजरंग बली एक मंदिर में स्थापित थे और कटहउवा बाबा उसी मंदिर परिसर के किनारे. गांव के एकाधिक सज्जन थे जो कुएं पर नहाते हुए अपने पुत्र-पौत्रों के ख़िलाफ़ गालियों का सस्वर पाठ करते हुए बड़े स्वाभाविक रूप से आते थे और कटहउवा बाबा को जल चढ़ाते थे. भक्ति के साथ गालियां भी जारी रहती थीं.

एक बाबा जी थे. स्नान के साथ ही ऊं नमः शिवाय का पाठ शुरू करते थे और फिर बीच में विलंबित ताल लेते हुए बोलने लगते – अरे, ससुरदास बैल खड़े हैं, देखात नाहीं है…चारा डार सारे… और फिर पंचम सुर में ऊं नमः शिवाय शुरू हो जाता था.

उनकी आस्थाओं का एक हिस्सा जाने-अनजाने हम जैसों को भी मिला होगा. नमामि शमीशान निर्वाण रूपम के बीच में मां-बहिन की गालियां इस क़दर स्वाभाविक थी कि जैसे कॉपी बुक शॉट खेलते राहुल द्रविड़ ने तेज़ रन बनाने के लिए कोई शॉट हवा में खेल दिया हो.

तुलसी भी आस्था का प्रतीक थीं. पर्यावरणविद् इस पर ठीक-ठाक अकादमिक पर्चा तैयार कर सकते हैं. गांवों की तमाम दादियां अपनी बहुओं को कोसते हुए तुलसी को जल दिया करती थी और बहुत से बाबा नहाकर तुलसी के उसी पेड़ में अपनी धोती भी निचोड़ देते थे. विरोध के स्वर उठने पर वह पौधे को पानी की आवश्यकता पर एक आध्यात्मिक लेक्चर प्रस्तुत करते थे. और धोती को तुलसी के पेड़ में निचोड़ देने को धर्मसम्मत ठहरा देते थे.

एनसीआर-मेरठ में कांवड़ के बहुत रूप-रंग देखे. लेकिन सबसे ज्यादा पसंद आता है, इस यात्रा के बहाने सामने आने वाला पॉपुलर कल्चर. केदारनाथ आपदा के बाद एक भजन खूब बजा था – भोले बह गया गंगा में गंगा को गुस्सा क्यों आया? ऋषिकेश में बही एक शिव मूर्ति की तस्वीर आपको याद ही होगी.

आज सुबह ही एक सुना. बोल शायद ठीक से याद नहीं रहे लेकिन थे कुछ यूँ – ठेके सारे बंद हो गए भोले भांग कंहाँ से घोंटू. ख़ैर इसे सुन के लगा कि लोकप्रिय रचनात्मकता में भक्त और भगवान के बीच हंसी-ठिठोली वाले संबंध कहीं न कहीं ज़िंदा हैं.

दरअसल भगवान के रूप में हमारे जैसों का पहला परिचय शालिगराम की बटिया के रूप में हुआ था. शालिगराम की काली बटिया किसी मेले-ठेले से खरीदे गए पीतल के सिंहासन पर जगह पाती थी और उसी के इर्द-गिर्द अन्य ईश्वरीय शक्तियां विराजती थीं. इन सबको एक लकड़ी के पीढ़े पर जगह मिलती थी. इसे भगवान की पिढ़ई कहा जाता था. जो शहरों में भगवान की अलमारी हो गई.

भगवान को रोज़ नहलाना और फिर चंदन लगाने के बाद ही रसोई से खाना निकलता था. दरअसल, शालिगराम भूखे हैं, इसकी चिंता किसे थी. वो तो घर का कोई बालक जब भूख या ज़िद के कारण खाना मांगने के बाद बाल लीला (लोटन-पीटन) शुरू कर देता था तो चटपट कोई नहा-धोकर भगवान को भी स्नान करा देता था.

फिर रोटी, दाल, तरकारी का थोड़ा अंश थाली के एक किनारे रख दिया जाता और फिर उसमें तुलसीदल डालने के बाद भगवान की पिढ़ई के चारों तरफ पानी का एक चक्कर लगाते हुए गुनगुनाया जाता था – आ जाओ भोग लगा जाओ मोहन, दुर्योधन घर मेवा त्यागो, साग विदुर घर खायो. मतलब आराम से खाइए विदुर के घर जैसे इंतज़ाम यहां भी है.

शालिगराम की बटिया की बात चली तो एक कहानी याद आ गई. एक बाबा जी शालिगराम के बड़े भक्त थे. रोज़ समय से ठाकुर जी को नहलाते-धुलाते, चंदन लगाते. आराधना में लीन रहते. एक बार बाबा जी को कहीं जाना पड़ा. बाबा जी इसके लिए चिंतित थे कि उनके कुटी में न रहने पर शालिगराम का ध्यान कौन रखता.

बहुत सोचा-विचारा तो एक बच्चा मिल गया. बाबा जी ने उसे पूरी प्रक्रिया समझाई कि कब ठाकुर जी को चंदन लगाना और कब नहलाना है. बच्चे ने कई दिन उनके सामने इस कार्य को बड़ी लगन से संपादित किया तो बाबा जी ठाकुर जी की चिंता छोड़कर भ्रमण पर निकल गए.

बच्चा भी पूरी श्रद्धा से शालिगराम की सेवा करता. लेकिन बच्चा तो बच्चा. एक दिन कुटी के पास लगे जामुन के पेड़ पर ढेले चलाने लगा. अवधी में जामुन को फरेंद भी कहते हैं. ढेले चलने लगे, लेकिन फरेंद नीचे आने का नाम नहीं ले रहे थे. आसपास के ढेले ख़त्म हो गए तो बालक ने ताव में शालिगराम की बटिया उठाई और जामुन पर चला दी.

शालिगराम ने चमत्कार दिखाया और ढ़ेर सारे जामुन ज़मीन पर आ गए. लेकिन बालक ने शालिगराम की बटिया इतनी ज़ोर से फेंकी थी कि जंगल में वो न जाने कहां गुम हो गई. अगले ही दिन बाबा जी को आना था, बच्चा सोचने लगा क्या जवाब दूंगा. बहुत ढूंढा लेकिन शालिगराम तो जंगल में अंतरध्यान हो चुके थे.

तब लड़के ने एक काला बड़ा जामुन उठा कर सिंहासन में रख दिया और चंदन-वंदन लगा दिया. दूर से देखने पर शालिगराम ही लग रहे थे. बाबा जी आए और बच्चे के भक्ति भाव की ख़ूब प्रशंसा की. अगले दिन बाबा जी ख़ुद ठाकुर जी को नहलाने लगे. पुराना चंदन छुड़ाने को ज़रा-सी ताक़त लगाई तो जामुन का छिलका उतर गया.

उन्होंने बच्चे से पूछा तो उसने एक दोहे में जवाब दिया – पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी / ठाकुर सरिगै हम का जानी.. (मतलब रोज़-रोज़ चंदन, रोज़-रोज़ पानी, ऐसे में शालिगराम की बटिया सड़ गई तो हम क्या करें.)

यह कहानी सिर्फ़ इसलिए कि आस्था हमेशा न तो धर्मभीरु होती और न बहुत डिमांडिंग. कृषक संस्कृति में आस्था ऐसी ही बनी-बिगड़ी. तभी तो राग दरबारी के छोटे पहलवान ने रंगनाथ से कहा था कि हमरे भगवान तो बस लाल लंगोट वाले, बाक़ी सब भूसा. दरअसल जब आप जीवन को जैसे समझते हैं, वैसे ही भगवान को समझते हैं तो कहीं कोई दिक्क़त नहीं होती.

कांवड़ यात्रा की पश्चिम में ज्यादा महत्ता है. लेकिन आर्य समाज से पगे इस इलाक़े के गांव में धर्म बहुत सीधे-सरल रूप में भी दिखता है. उनकी आस्था वैसी ही है, जैसी किसी कृषक समाज की होनी चाहिए. लेकिन जब पहली बार डाक कांवड़ जैसे शब्द सुने थे तो पूछा था, कोई स्पीड पोस्ट कांवड भी होती है क्या. कुछ लोग नाराज़ भी हुए. ज़ाहिर है कि आस्था आहत हुई होगी. मेरा कोई ऐसा इरादा भी नहीं था.

लेकिन अब इस इलाक़े में इतना वक्त तो हो ही गया है कि अब समझ गया हूं कि स्पीड पोस्ट नहीं कुछ कांवड़ तो कोरियर कंपनियों की सर्विस से भी तेज़ चल रही हैं. सम्पन्नता परम्पराओं के प्रति बहुत आग्रही भी होती है. बस वो उसे आधुनिक और ग्लैमराइज़ कर देना चाहती है.

एनएच-58 पर आस्था इसी आधुनिक वैभव और विद्रूप दोनोँ के साथ निकलती है. आस्था की ऐसी जकड़बंदी और शक्ति-प्रदर्शन कि किसी को कट से भी निकलने की इज़ाज़त नहीं. एक जानकार क़िस्म के साहब से पूछा था तो उन्होंने कहा कि यह सब ठीक है. कांवड़ के बहाने साल में एक बार हिन्दू शो ऑफ़ स्ट्रेंथ (शक्ति प्रदर्शन) तो करते हैं.

वेस्ट यूपी के ध्रुवीकृत माहौल की अपनी सच्चाई है. शायद ईंद और बारवफ़ात के दौरान बाइकर्स का हुड़दंग भी मुसलमानों के शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा होगा. वहां भी कोई साहब ऐसे विचार रखते होंगे. ये शक्ति प्रदर्शन वाली आस्था भी देख ली.

शक्ति प्रदर्शन एक राजनीतिक-सामाजिक सच्चाई है. इसके अलावा एनसीआर के इस इलाक़े के धन्ना सेठ अपनी काली कमाई को धार्मिक-आध्यात्मिक वैधता भी देना चाहते ही हैं. मन हल्का हो जाता है. दरअसल हम जी ही ऐसे दौर में रहे हैं, जहां हमारी आस्थायें हल्की हो रही हैं. क्या कभी प्रभु से यह पूछने की इच्छा नहीं होती कि ये सब हमारे ही समय में होना था!!

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Anurag Shukla

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