‘उठो लाल अब आंखें खोलो’… तक पढ़े हैं और क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं

बरसों बाद बाराबंकी में जावेद भाई मिल गए. जावेद भाई जब मिलते हैं तो उनके मिलने-बतियाने के लहजे से मुझे ‘तमस’ वाले भीष्म साहनी से जुड़ा एक वाकया याद आ जाता है. अपने बचपन के बारे में बताते हुए भीष्म साहनी का एक इंटरव्यू पढ़ा था. इसमें भीष्म साहनी कहते हैं कि जब वह पूछते थे कि मैं किस महीने में पैदा हुआ तो मां कहती थीं, महीना-साल मुझे नहीं पता, मुझे बस ये पता है कि बलराज (बलराज साहनी के भाई-मशहूर फिल्म अभिनेता) से तू एक बरस तीन महीने छोटा है.

भीष्म का समयबोध, इतिहासबोध मार्क्सवादी था, लेकिन उनका मानना था कि मां की समय को लेकर समझ उनसे बेहतर थी. बहुत बार मांओं का इसी तरह का समयबोध बेटे को बहुत समझदार बना देता है.


कुछ ऐसा ही समयबोध और ज्ञानबोध जावेद भाई को भी है. बहुत साल हुए (1995-96) जब जावेद भाई अक्सर घर आया करते थे. गाड़ी खड़ी करके वे अख़बार मांगते और फिर गाड़ी में बैठकर पढ़ा करते. एक दिन उन्होंने अख़बार मांगा. मैंने खोजना शुरु किया, लेकिन उस दिन का अख़बार मिला नहीं. हमने उन्हें बताया कि आज का अख़बार मिल नहीं रहा है. उन्होंने मुझे ग़ौर से देखा. उनकी मुखमुद्रा से साफ़ था कि वे मेरी बात समझ नहीं पाए हैं. फिर एकाएक वहीं बैठक में पड़े पुराने अख़बार की ओर इशारा कर अवधी में बोले, ‘ई पड़ा तो है अख़बार, यही वाला उठाय देव.’ हमने अख़बार की तारीख़ देखकर कहा – ई तो पांच-छह दिन पुराना है, आज का थोड़े है. जावेद भाई बोले – तो का हुआ. हमका मिलाय-मिलाय पढ़ना ही तो है. नए-पुराने से का फ़र्क. यह सुनकर मुझे अजीब लगा. फिर मैंने उन्हें बताया कि हर रोज़ जब वे अख़बार मांगते थे तो मैं उन्हें ढूंढ़कर ताज़ा अख़बार देता था. यह सुनकर जावेद भाई ठहाका मार कर हंसे और बोले – भाईजान हम तो आजकल पढ़ै कि प्रिकटिस कर रहेन, इतना पढ़े लिखे थोड़ हन कि रोज का ताजा अखबार पढ़ी.


वैसे कितना पढ़े हो जावेद भाई? इस पर उन्होंने इस तरह सोचना शुरु किया जैसे किसी विश्वविद्यालय का अकादमिक सेशन लेट हो गया हो. फिर बोले – हम वा वाली किताब पढ़ेन है जी मा रहै – ‘उठो लाल अब आंखें खोलो, पानी लाई हूं मुंह धो लो. दर्जा ठीक से याद नहीं’. पेशे से ड्राइवर (अब वो दो टैक्सियों के मालिक हैं) जावेद भाई का समय बोध भी भीष्म साहनी की मां की तरह था. पढ़ाई की उनकी समझ दर्जे वाली नहीं थी. उन्हें वो याद था, जो उन्होंने पढ़ा था.


अपने शहर के ऐसे वाक़ये चेतन-अवचेतन में जगह बना लेते हैं. बाराबंकी छोटा शहर है. लखनऊ के फैलाव और नई पीढ़ी के बाक़ी दुनिया से वाक़िफ़ होने के बाद अब यह और छोटा लगने लगा है. बाराबंकी का एक मोहल्ला है, बेगमगंज. इस बेगमगंज में एक सैलून हुआ करता था. अब भी है. नब्बे का दशक अधिया चुका था और उस ज़माने में किशोरों और ख़ूबसूरत बनने की चाह रखने वालों प्रौढ़ों के बीच वह सैलून ख़ासा लोकप्रिय था. हमारे दोस्तो के बाल कटाने का अड्डा भी वही था. तो कभी अपनी तो कभी किसी संगी साथी की हजामत के लिए महीने में एकाध बार वहां जाना हो ही जाया करता था. भीड़ रहती ही थी, तो सैलून मालिक बड़ी मनुहार के लहज़े में कहते, ‘भईजान लंबर थोड़ा लेट अइहै. मन होय तो बैठो, नहीं थोड़ी तफरीह लैके आओ.’


सैलून की उस भीड़ में इतनी क़िस्सागोई थी कि तफ़रीह का उससे बेहतरीन अड्डा और क्या होता? सैलून का कोई हज्जाम अपने बंबई के दिनों के बारे में बताने लगता था तो भीड़ में से कोई पूछता – का मे नसीम. जब बंबई गए रहे तो कोई हीरो का बंगला देखे हो. नसीम शेविंग क्रीम मलते हुए जवाब देते थे – बंगला. बीसों बार. भईजान एक बात बतावन – ‘ई शाहरुख, सलमान, अमिताभ का बाराबंकीन मा भोकाल है. बंबई मा उनकी तरफ कोई देखतव नहीं है.’ इसके उलट एक और कैटेगरी भी थी जो फ़िल्म स्टारों के जलवे और उनसे अपने दोस्ताने के बखान में इतना आगे निकल जाता था कि अतिश्योक्ति जैसे शब्द उसकी महिमा को नहीं संभाल पाते थे.


ऐसे ही किसी कारीगर का वर्णन जब अलंकार के बंधनों से मुक्त होकर निर्बाध विचरण करने लगता तो उसके किसी वरिष्ठ की आवाज आती- ‘भईजान, इऊ गदहा है, इससे तफरीह न लेव नहीं कौनौ कस्टमर की दाढ़ी-वाढी काट देहे. साले ई काहे नाहीं बतावत हौ कि मसौली से तुमरे बाप जब तुम का गरिया के भगाईन तो बंबई गयो. ऊहां कुछ नहीं उखड़ा तो हियां दाढ़ी बनाय रहे हौ.’ उस्ताद के इस व्यवहार से उत्साही और बतकुच्चन हज्जामों का खे़मा हतोत्साहित हो जाता.


लेकिन, सिलसिला टूटता नहीं था. नई उमर की नई फ़सल में से कोई जीआईसी में लड़कों के बीच हुई मारपीट का ऐसा वर्णन करता कि जैसा पानीपत का पांचवा युद्ध हो गया हो. ‘अबे, जानत हो. ऊ जौ आनंद वाला मैटर रहा, ऊ मा आज शुगर मिल वाले लौंडे सुभाष नगर वालेन का फोड़िन.’ अवधी के इस धाराप्रवाह वर्णन में खड़ी बोली का प्रवेश तभी होता था, जब किसी अपरिचित कोने से कोई सवाल उठता और उसका औपचारिक जवाब देना होता. किसी कोने से बड़ी सभ्य सी आवाज आती – झगड़ा काहे हुआ भाईजान. अरे, वही लड़के-लड़कियों का चक्कर!फिर शहर के ट्यूशन – कोचिंग में हाल फ़िलहाल में हुए सारे झगड़ों के बारे में बात होती और इस बात का भी विश्लेषण होता कि इस समय शहर के इन झगड़ों में कौन सा दादा प्रभावी है. दादा लोग भी उस सैलून पर आते- जाते रहते थे तो उनके उत्थान-पतन पर भी समय-समय पर चर्चा हो जाती थी. सैलून क्या था, शहर की आकाशवाणी का स्थानीय केंद्र था.


उसी सैलून का एक और क़िस्सा. एक साहब रिक्शे से उतरे. बैसाखी का सहारा लेकर. उतरते ही उनकी तरफ़ कई सलाम उछले. हम लोग समझ गए कि कोई मुअज़्ज़िज़ ही होंगे. बातचीत से अंदाज़ा लगा लिया कि मसौली क़स्बे में उनके आम के कई बाग हैं और लड़के लखनऊ में कपड़ों का कारोबार करते हैं. बड़े दिलचस्प और ज़िदादिल शख़्स. उनका एक पैर कटा हुआ था. आते ही वे महफ़िल-ए-हज्जाम पर हावी हो गए. और हम सब ख़ामोशी से उन्हें सुनने लगे.
हमारे जैसे ही एक ने पूछ लिया – अंकल जी पैर में क्या हुआ. सवाल थोड़ा अटपटा था, लेकिन उस ज़िदादिल शख़्स ने ठहाके लगाकर स्थानीय आकाशवाणी का माहौल फिर नार्मल कर दिया. बोले – बेटे बड़ी लंबी कहानी है.

चूंकि हम सबकी बेहतर अभिव्यक्ति की ज़बान अवधी ही थी. सो उन्होंने भी अवधी गद्य का प्रवाह शुरु किया. ‘पांच बरस से ऊपर होईगै. बेटा, लखलऊ से आवत रहेन बुलेट मोटर सैकिल से. लौंडे चलावै नहीं देत रहे, लेकिन उई दिन सबका गरियायन और गाड़ी लैके चल दिहेन बाराबंकी. सफेदाबाद के पास न जानै का भवा. ट्रक वाले से भिड़ गएन. फिर कुछ पता नहीं. दुई दिन बाराबंकी मा भरती रहेन. ईहां के डॉक्टर से नहीं संभला तो कहिन मेडिकल कालेज लै जाव लखनऊ. लड़के-रिश्तेदार लई जायक मेडिकल कालेज पटकिन. ऊहां बेहोश होई गैन पता नहीं चला कि का भवा. होश आवा तो देखेन बेगम-लड़के सब परेशान हैं. बड़े डॉक्टर हमरे बड़े लौंडे का कुछ समझाय रहे रहै. हम समझ गयन कि कुछ मामला गड़बड़ है. डॉक्टर खसका तो हम लड़के का बुलाय कै पूछा का बात है. ऊकै बक्कुर न फूटै. हम कहा-साले बतइहवा कि उठाई डंडा. तब बोला – कहत हैं कि गोड़ काटै का परिहै. जहर फैल गवा है. बेगम हमरी भोकारा फोरकर रोवैं. एक झटका सा हमका भी लगा, लेकिन फिर एक मिनट मा संभल गएन और बोलेन – तो ईमा कौन बात है. जब गोड़ मा जहर फैल गया हौ तो कटवाओ साले का. डॉक्टर का बोलाव – देर कौन बात की. जौन गौड़ साला जहरीला होईगै. ऊका काट के अलग करौ फौरन. ऊके बाद आपरेशन हुआ, पैर कट गवा.’


बहुत हिम्मती हो चचा आप. युवा वर्ग में ख़ासे लोकप्रिय बंबई रिटर्न कारीगर नसीम मियां की इस बात पर सभी लोगों ने सहमति जताई. लेकिन, चचा इससे प्रभावित हुए बिना बोले- ‘अब ईके आगे सुनौ. जब हमका होश आवा तो हम बेचैन. तुरंत लड़के से पूछा – जो हमरी टांग कटी, कहां है. लड़का कहिस होई कहुं. पता नहीं. हम फौरन कहा- जाहिल हौ का बे. तुरंत कटी टांग का पता लगाव.’


फिर किसी मासूम का सवाल आता- टांग का क्या करते अंकल जी? खड़ी बोले में हुए इस सवाल का जवाब खड़ी बोली में आया – ‘यही सवाल तो हमारे बेटे ने भी किया था.’ लेकिन फिर उन्होंने अवधी की शरण ली. ‘बतावत हन काहे. बड़ा लड़का एक घंटा भटका फिर हमरा कटा पैर लैके एक पॉलिथिन मा आवा. फिर हम सोचेन लौंडे हमरी बात समझे न समझे. हम बेगम का बुलाएन और मेडिकल कालेज के बड़े डॉक्टर साहेब के सामने कहा- बेगम, सुनो ई कटे पैर का अपने बड़ेगांव वाले कब्रिस्तान मा दफनाव. और हां तुम खुद गांव मा बोल के पक्का कराव. आजकल के लड़कन का कौनो भरोसा नहीं. डॉक्टर पूछन लगे- अरे, मियां ई कटी टांग का काहे दफनवा रहे हो.’ तो हमने कहा – ‘डॉक्टर साहब, आजकल के लड़कन का लगी है दूसरी हवा. दीन-ईमान की बातें समझ में नहीं आवत. अगर बदन से कोई अंग अलग हो जावे तो उसे फौरन दफन कर देना चाहिए. कुरान शरीफ मा सफा-सफा लिखा है कि कयामत के रोज ऊपर वाले के पास तुम वैसेन जईहौ, जैसे दफन किए गए होईहौ. अब अगर ई पांव का ऐसी वैसी फेंक दिया गया तो कयामत के रोज जब हमरा नाम पुकारा जईहै तो पता चली कि हम खुदा के पास का लंगड़े लंगड़े पहुंच रहे हन. कहुं अल्ला मियां पूछै बैठे कि अबे तुमका तो दूनो टांग दिए रहेन तुम लंगड़े-लंगड़े काहे आय रहे हो.’


तो समझ में आई बात बेटा, कयामत के रोज अल्ला मियां के पास दुईनो पांव से जान ईके लिए जरुरी है कि पांव दफन किया जाय. उन्होंने यह भी बताया कि डॉक्टर उनकी बात सुनके खूब हंसे. हम लोग भी हंस पड़े थे. नसीम मियां ने इस क़िस्से को सुनने में लगे कुछ लोगों के नंबर भी इधर से उधर कर दिए थे.


लेकिन, इसकी परवाह कौन कर रहा था. सब चचा को सुनने में लगे थे. जो क़यामत का भी अपनी संपूर्णता में स्वागत करने को इतने ज़िदादिल तरीक़े से तैयार थे.
ऐसे ही किस्से तो होते हैं, जो सभ्यता के अनिवार्य नियमों को थोड़ा बेहतर बनाते थे और जिजीविषा को भी.

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Anurag Shukla

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